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१७ जुलाई, १९७१
मैंने समझ लिया है कि अगर परम चेतनामें एक क्षणके लिये मी वह चेतना हो जो मनुष्योंमें है तो जगत् स्कूल हों जायगा... । हमारी सहज प्रतिक्रिया, वस्तुओंके बारेमें हमारी सहज प्रतिक्रिया यह होती है कि हमें जो बुरा लगता है, जो मिथ्या है उसे नष्ट कर दिया जाय । सहज प्रति- क्रिया है रूपांतरित करना नहीं : नष्ट करना - समझते हो, दोनोंके बीच बहुत बड़ी खाई है ।
जी !
यह बिलकुल सहज है, खतम कर देनेका -- मिथ्यात्वको खतम कर देनेका भाव बिलकुल सहज है । लेकिन अगर परम प्रभुके अंदर क्षणभरके लिये भी इस प्रकारकी गति हो तो कही दुनियाका पता न चलेगा!... और मेरा रथ्या है कि यह बात शरीर समझ गया है । मेरा ख्याल है कि वह समझ गया है - यह असाधारण था... । हम क्या हैं! मनुष्य क्या हैं! वे मानते है, हे, भगवान् (माताजी जोरसे सांस लेती है), वे मानते हैं... ओह!... अगर उनमें जरा भी समझ होती या अगर वे पूर्णताके लिये जरा भी प्रयास करते, ओह! (वही संकेत) वे मानते है, वे मानते हैं कि वे असाधारण है! (माताजी दोनों हाथोंमें सिर पकड़कर हंसती हैं) ।
श्रीअरविंदने कहींपर कहा है कि जब तुम भागवत चेतनाके संपर्कमें होते
हो तो तुम्हें अचानक यह पता लगता है कि... यह संसार अपनी मूर्खतामें किस हदतक हास्यास्पद है । मनुष्योंकी मूर्खता... । लेकिन पशुओंमेंमेरा पशुओंके साथ संपर्क रहा है - पशुओंमें भी यह चीज शुरू हो गयी है । मिथ्याभिमान, मिथ्याभिमान, मिथ्याभिमान, मिथ्याभिमान...
( मौन)
जानते हों, धोखेबाजी और धोखेबाजीके प्रयासको सब जगह सद्भावना माना जाता है । और जो धोखा नहीं देना चाहते, परंतु अपने-आपको ही धोखा देते है, वे अपवादस्वरूप सत्ताएं हैं ।
ये खोजों नहीं हैं, ऐसी चीजें हैं जिन्हें मैंने देखा है; लेकिन वे कभीकदास, अपवादिक रूपमें इसके लिये या उसके लिये दिखायी देती हैं -- लेकिन मुझे सारे संसारका, समस्त पृथ्वीका, सारी मानवजातिके प्रयासका, सभी मनुष्योंका, सब चीजोंका अंतर्दर्शन प्राप्त था... । हम एक धोखेमें रहते है... यह भयानक है!... और फिर आदमी जितना औरोंको धोखा देना चाहता है, उससे बढ़कर अपने-आपको धोखा देता है।
(मौन)
कहनेका मतलब यह? कि हम किसी चीजको भी वह जैसी है वैसी नहीं देख पाते ।
(लंबा मौन)
केवल एक सुरक्षा है : भगवान्से चिपटे रहो, इस तरह (दोनों मुट्ठियां बांधनेका संकेत) ।
चिपके रहना, लेकिन उससे नहीं जिसे तुम भगवान् सोचते हो, उससे मी नहीं जिसे तुम भगवान् अनुभव करते हो... यथासंभव अधिक-सें-अधिक सच्ची, निष्कपट अभीप्सा । और उससे चिपके रहो ।
(मौन)
जानते हो, एक बात मैं तुम्हें पहले ही बता चुकी हू, शरीर - शरीर- की चेतना -- पहलेसे ही जान लेता है कि क्या होनेवाला है । वह पहलेसे
जानता है कि लोग उससे क्या कहनेवाले है । लेकिन वह यह नहीं जानता ... (कैसे कहा जाय?) वह ठीक उस रूपमें नहीं जानता जिसमें भौतिक रूपमें चीज होनेवाली है । वह... सदा... यह जानती है कि चीज किस भावसे की जाती है... । यह बड़ी अजीब बात है । मै विना हीले-डुले, केवल भगवानकि होकर रहनेकी कोशिशमें लगी हू और चीजें होती जाती है - वे इस प्रकार होती है (ऐसा संकेत मानों सामनेके परदेपर) : चीजें, पदार्थ, घटनाएं आती हैं, लोग बोलते है । शुरूमें मैं मानती थी कि यह मेरी भौतिक चेतना ही थी जो अपने-आपको चुप न रख सकती थी । फिर मैंने जाना कि यह बाहरसे आकर भौतिक स्तरपर भौतिक रूप ले रही है । अब अगर मैं इन चीजोंको मानसिक भाव दु तो मै भविष्यमें होनेवाली चीजोंको देख सकूंगी, कह सकेगी कि क्या होनेवाला है... ! केवल, साधारण मनुष्यमें; मन इन बातोंका उपयोग भविष्यवाणियां करनेके लिये करता है -- लेकिन, सौभाग्यवश, मन है ही नहीं, वह शांत है, वह अनुपस्थित है । सिर्फ जब मुझे बातें बतलायी जाती हैं या मेरे आगे कही जाती हैं, तो इस शरीरको कोई आश्चर्य नहीं होता, ऐसा लगता है कि वह जानता है । अजीब बात है. । एक प्रकारका सर्बीकरण !
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